झारखण्ड :जब बर्तन हंडी की शुरुआत नहीं हुई थी तब से हमारे आदिवासी समुदाय के लोगों ने दोना और पत्तल का अविष्कार कर दिया था। प्रकृति के साथ जीवन कठिन भले हो पर जीवन का आनन्द उसी में ही है ।जी हां आदिवासी सदैव अविष्कारक रहे है । ये आदिवासी इलाके में दाल परोसने वाला बर्तन है । देखिए प्रकृति पूजकों का कितना प्राकृतिक पात्र है जिसे देखते ही आप दंग रह जाएंगे ।आदिवासी समाज दार-झोर या सब्जी को परोसने के लिए बांस और पत्तो का ऐसा खूबसूरत पात्र बनाते है। जैसे की रसीला पदार्थ ज़मीन मे नहीं गिरे इसलिए पत्तों की लाइनिंग महत्वपूर्ण हुनरमंदी है। जिसे इतनी बारीक कारीगरी से केवल ये ही बना सकते है। दुनिया की उत्पति हुआ । तब बर्तन हंडी का विकास नहीं हुआ था तब से हमारे आदिवासी समुदाय के लोगों ने सामुहिक भोज में तकनीक का अविष्कार किया । वैसे पहले की तरह आज किसी शादी पार्टी या भोज में पत्तों से बना पत्तल दोना कहां देखने को मिलता है, आप अपने क्षेत्र में किसी भी आदिवासी समाज को देखें। उन्होंने प्रथम अहमियत प्रकृति को दी है तुंबी से जल निष्कासन पात्र , मिट्टी के बर्तन , लकड़ी के पात्र,अनाज संग्रहण के लिये बनाये पात्र ऐसे बहुत सारे उदाहरण है । जो आपको देखने को मिलेगा। जनजातीय समाज के कारण ही प्रकृति संरक्षण संभव है। इनका सम्पूर्ण जीवन जंगलों ,नदियों, पर्वतों के बीच रचा बसा है। ये प्रकृति के सच्चे आराधक हैं। प्रकृति उनका जीवन है और जीवन को सहेजना इनसे हमें सीखना होगा।
भारतीय सनातन संस्कृति सदैव पर्यावरण संरक्षक तथा प्राकृतिक रही है,आदि अनादि भारतीय आदिवासी समाज ने कभी प्रकृति को हानि नहीं पहुंचाई, सदैव उसका संरक्षण तथा संवर्धन करते हुए,अपनी सीमित आवश्यकताओं अनुसार उसके संसाधनों का उपयोग किया है । दोहन नहीं,वह भी उनकी पूजा करके उनसे अनुमति लेकर, न्यौते देकर,उनकी आवश्यकताएं सीमित है ।वे शहरी लोगों की तरह स्वार्थी नहीं है । अनावश्यक संग्रह में उनका विश्वास नहीं हैं यदि वास्तव में हम पर्यावरण की रक्षा करना चाहते हैं । तो हमें उन्हें ही अपना गुरु मान कर उनका अनुसरण करना होगा,केवल तख्तियां लेकर पर्यावरण बचाओ, पर्यावरण बचाओ के नारे लगाने चिल्लाने से रक्षा नहीं होगी,आदिवासी समाज में बहुत कुछ ऐसा छोटा-मोटा उदाहरण है जिसे हमें बहुत बड़ी सीख मिलती है। हमें ऐसे समाज से कुछ सीखना चाहिए।
दोना पत्तल जिसे आदिवासी समाज कटोरी और प्लेट बना कर देते थे उसी से शादी विवाह संपन्न होते थे और शुभ माना जाता था लेकिन आज मशीनी युग में इनका गांव से पलायन हो रहा है दोना पत्तल बहुत कम लोग खरीदते हैं प्रकृति हमारी गुरु आदिकाल से रही है। क्योंकि अधिकतर अविष्कार प्राकृतिक प्रेरणा से ही हुए है।
