जादूगोड़ा: हमारे बिहारी में आम बोलचाल में यह भी कहा जाता है, देखो वह कितना कंजूस है, एक बताशा तक नहीं खिलाया. बताशा हर त्योहार, पूजा, विविध अनुष्ठान में एक आवश्यक सामग्री था. पूजा के दौरान बताशा भगवान के नाम में पर उछालने की परंपरा भी रहा है। जिसे हरिर लुट कहा जाता है, बताशा हाथों से पकड़ने या धरती पर गिरने के साथ प्रसाद के रूप में लेने के लिए कई एक साथ झपट पड़ते हैं, अक्सर अंतिम यात्रा, शोभायात्रा में भी बताशे को उछालने, लूटते हुए आपने देखे होंगे। बताशा आज से ठीक पचास साल पहले तक एक प्रमुख मिठाई मानी जाती थी। इसे हर शुभ काम या खुशी के अवसर पर बाँटा जाता था, उपहार में दिया जाता था और विशेषकर मन्दिरों में प्रसाद के रूप में अर्पित किया जाता था। शादी-ब्याह में उपहार के कपड़े-गहने के साथ बड़े बताशे भी थाल पर रख कर दिये जाते थे। खुशी के मौके पर बताशे बाँटे भी जाते थे और लुटाये भी जाते थे। मगर जब लोगों की आर्थिक हैसियत मजबूत हुई और अपेक्षाकृत अधिक स्वादिष्ट मिठाइयाँ बाजार में आ गईं तो बताशे की जगह अन्य मिठाइयों ने ले लीं। दीपावली के समय यही बतासे को पिघला फार्मा में डालकर घोड़ा, हाथी, घर, हंस आदि का आकार दिया जाता है. जो अक्सर आपने दिवाली के बाजारों में दिवाली में देखा होगा। एक जमाना था जब शादी में कम से कम 40 कलो बताशा हर गरीब से गरीब के घर लगते थे लग्न से लेकर बहु की बापसी तक और तो और हमारे समाज में भी यह अक्सर देखा गया है चाहे बताशा एक आम मिठाई नहीं है। बताशा चाहे जन्म हो या मुंडन हो ,अन्नप्रसन हो,पाठी पूजन हो ,नव प्रवेश हो, लगन हो तिलक हो, बिदाई हो, पूजन हो, हर जगह कहीं ना कहीं आपको यह दिख जाएगा किसी अनेक अवसर के साथ जब किसी की मौत भी हो तो भी यह ऊपर से फैके जाते हैं। इस विरासत के मिठाई को कम नही आक सकते है, यह महत्वपूर्ण स्थान रखता है, जादूगोड़ा निवासी चंदन कुमार बताते हैं कि देसी हस्तनिर्मित चीनी से बनी मिठाई, भारत में त्योहारों के व्यंजनों का एक अभिन्न अंग है। वही जमशेदपुर निवासी उमाशंकर परिहार का कहना है कि दिवाली की एक आम परंपरा है जो अपनेपन और साझा करने की भावना को दर्शाती है, इसे चावल की पहली खेप से ताजा बनाया जाता है और देवी लक्ष्मी को चढ़ाया जाता है पश्चिम बंगाल में, हर घर में पूजा के लिए बताशा एक नियमित सामग्री है। तो जब कोई आपसे कहे कि क्यों ना कुछ मीठा हो जाए तो एक बार बताशे की तरफ जरूर झांक लीजिएगा।
