जादूगोड़ा: खबर ही जीवन है. यही पत्रकार का परिवार है लोगों के खबर लिखने वाले पत्रकार पर भी तो खबर बननी चाहिए है कि नहीं, पत्रकार सबकी खबर लेते हैं और सबकी खबर देते हैं. मगर उनकी खबर कौन ले. कभी ज़माना गरीबी का था। लोग गरीब थे मगर वे दरिद्र नहीं थे। पत्रकार उन्हीं लोगों में से आते थे इसलिए स्वाभाविक ही वे भी गरीब ही होते थे। मगर वे भी दरिद्री नहीं होते थे। ना उस समय कोई टेक्नोलॉजी थी ना कुछ उपयुक्त साधन, जादूगोड़ा के यह दो पत्रकार उन्हीं के उदाहरण है। उस जमाने में अपने समाचार को बस (ट्रांसपोर्ट) के माध्यम से पेपर में लिखकर लिफाफो में डालकर संपादक के पास भेजना एवं समाचार दो दिन बाद छपना अनुमान लगाइए यह सिलसिला कितनी दिलचस्प रही होगी. तब के जमाने के पत्रकार और अभी के जमाने के पत्रकार में काफी बदलाव आ गया है। इंटरनेट कहां थी साहब? कवरेज के दौरान ली गई तस्वीरों को मेल के जरिए भेजना होता था। वह भी किसी साइबर कैफे में जाकर। इन लोगों के पास आत्मविश्वास की अकूत पूंजी होती थी। उनकी कलम बोलती थी। वे लड़ते थे, संघर्ष करते थे जनता के लिए। समाज के दोस्त थे। उस दौर में व्हाट्सएप नहीं था। पाठक उनकी ताकत होते थे। लोग अखबारों को अहमियत देते थे। वर्ष 1992 आज अखबार से अपनी पेशा की शुरुआत करने वाले विद्या शर्मा जमशेदपुर के संपादक मेनिदर चौधरी के साथ मिलकर प्रारंभ किया। जादूगोड़ा ग्रामीण जैसे छोटे क्षेत्र में लोगों में अखबार की अलख कैसे जगाया जाए. इन्हें बखूबी आता था। यही उनकी विश्वदृष्टि थी। वर्तमान में विद्या शर्मा जागरण अखबार में अपनी सेवा दे रहे हैं।
वहीं अगर बात की जाए तो अरुण सिंह वर्ष1991 आवाज अखबार से जमशेदपुर संपादक ब्रह्मदेव शर्मा के साथ मिलकर जो कि आगे चलकर चमकता आईना में परिवर्तन हो गया। वहां से अपनी पेशा की शुरूआत किया। यही कारण है कि क्षेत्र में उन्हें बच्चा-बच्चा तक जानता है। खबर लिखे जाने से ठीक एक घंटा पहले फोन कॉल के माध्यम से पूछा गया कि अखबार में क्या छपना चाहिए और क्या नहीं तब उसका जवाब था “अपनी बुद्धि से जो कुछ भी हमारे आस-पास घटित हो रहा है। वह सब प्रकाशन योग्य है।” सच में इन जैसे पत्रकारों का ज्यादातर अखबारों में फोटो नहीं आते हैं। आते हैं तो उनके लिखे शब्द, उनके नाम जो उनके हर एक न्यूज़ कवरेज में जुड़ा हुआ होता है। हालांकि कई सोशल मिडिया समाचार संस्थान पत्रकारिता के आदर्श व मानकों को ध्यान में रखते हुए आज भी आदर्श पत्रकारिता की अलख जगाए हुए हैं। होना भी चाहिए फेसबुक और इंस्टाग्राम का जमाना भी तो है। पर ये संस्थान भी भूसे के ढेर में सुई के समान कहीं खोए हुए नजर आते हैं। क्योंकि अब इन जैसे पुराने विचारधाराओं के कोई व्यक्ति ना मिलते हैं. ना मिलते हैं इन लोगों के द्वारा दिए गए कुछ पुराने शब्द। पत्रकारिता में नौकरियाँ ना के बराबर है। सैलरी के बारे में पूछे तो ही अच्छा रहेगा। ऊपर से यहाँ स्किल जैसी चीज कम है। लेकिन अगर आपने नए जमाने की कुछ चीजें पकड़ लीं और पुराने पत्रकार जो भविष्य के लिए कुछ छोड़ कर गए, उनसे सीख लेकर आगे बढ़े तो अवसर बढ़ जाएँगे, तब आएगा एक नया पत्रकार।
