रणधीर कुमार सिंह/मनोज कुमार
जादूगोड़ा /झारखण्ड
झारखण्ड के कोल्हान प्रमंडल का क्षेत्र शक्ति की देवी की उपासना के लिए जाना जाता है और इसमें सबसे बड़ा आस्था का मंदिर है जादूगोड़ा का रंकिनी मंदिर| झारखंड के रत्नगर्भा धरती जहां के गर्भ में दुनिया की हर वो बेशकीमती रत्न छिपा है जो मानव जाती के उत्थान और विकाश के लिए जरुरी है|
जी हाँ हम बात कर रहे हैं नवोदित झारखण्ड के पूर्वी सिंहभूम जिला के जादूगोड़ा की जहां मुसाबनी और आसपास में ताम्बा,सोना,चांदी,पन्ना,अभ्रक और सामरिक क्षेत्र में देश को आत्मनिर्भर बनाने वाले युरेनियम धरती माता के गोद में भरा पडा हुआ है| वहीं इसी क्षेत्र में शक्ति की प्रतिमूर्ति काली अपने एक अलग रूप में इस क्षेत्र की रक्षा और देखभाल करती है वह जागृत स्वरुप माँ रंकिनी का जो कोल्हान ही नहीं झारखण्ड और इसके परोसी राज पश्चिम बंगाल और ओड़िसा तक इनकी महिमा फैली हुई है |
शक्ति की देवी माँ रंकिणी मंदिर के बारे में कहा जाता है कि देवी रंकिणी यहाँ एक पत्थर में विराजमान हैं और आज भी जागृत अवस्था में है और लोगों की हर मनोकामना पूरी करती है जो सच्चे मन से माँगा जाता है| रंकिणी मंदिर की स्थापना देश आजदी के वर्ष में आज से तक़रीबन 77 वर्ष पहले सन1947 से 1950 के बिच में हुई थी | जहां तब से आज तक एक शिला के रूप में माँ रंकिनी की पूजा अनवरत होती आ रही है| यहाँ वर्तमान में जिस जगह माता की मूल स्वरुप की पूजा की जाती है, वह स्थान एक पत्थर के चट्टान में स्थापित है। माता रंकिणी मुख्य मंदिर के नीचे से गुजरने वाले नाले को पार करने के बाद दुसरे किनारे में पहाड़ी के निचे उस समय इस पहाड़ी नाले के किनारे जिसे कापड़ गद्दी घाट कहा जाता है वहीँ माता रंकिनी वास्तविक रूप में निवास करती है|
माता की महिमा वर्षों से रहस्य और रोमांच से भरा हुआ है जहां आस्था का शैलाब हर दिन दुबकी लगाते रहता है और भक्त अपनी मनचाहा वरदान पाते हैं| माँ रंकिनी की जितनी महिमा अपार हैं इनके बारें में इतने ही तरह के कई रोचक तथ्य और कथा कहानी भी प्रचलित है| अपने समृद्ध इतिहास और परंपरा से भरा यह पवित्र हिंदू मंदिर रंकिनी देवी की जिन्हें देवी काली का अवतार भी माना जाता है। स्थानीय लोगों के द्वारा बताए गए कथा कहानी के अनुसार प्राचीन काल में घनघोर जंगल के बिच से यात्री एक जगह से दुसरे जगह पर इसी घनघोर जंगलों से होकर गुजरते थे और जंगलों से होकर यात्रा करते समय सुरक्षा और अपनी कल्याण और सुरक्षा की कामना करते हुए रंकिनी देवी मंदिर में पूजा करने के लिए रुकते थे। माँता रंकिनी जिस जगह पर विराजमान हैं वह जादूगोड़ा क्षेत्र में पड़ता है,जादूगोड़ा शब्द स्थानीय जनजातीय भाषा से लिया गया है जिसका अर्थ है हाथियों की भूमि | बताया जा रहा है की यहाँ कभी एशियाई हाथियों का घर हुआ करता था लेकिन लगातार जंगलों को काटकर गाँव बसते जाने के कारण यह क्षेत्र खदानों और कारखानों की स्थापना के साथ ही काफी बदलता चला गया| जिसके कारण हाथी घने जंगलों में चले गए हैं। इसके बावजूद, इस शहर और क्षेत्र का ऐतिहासिक महत्व विद्यमान है|
जादूगोड़ा यूसीआईएल के प्रभुत्व वाला एक छोटा सा शहर है, जिसे भारत में पहला ऐसा जगह होने का गौरव प्राप्त है जहाँ बड़े पैमाने पर विश्वस्तरीय गुणवत्ता वाला यूरेनियम का उत्पादन किया जता है जो क्षेत्र के लोगों को रोजगार और देश को तकनिकी मजबूती के साथ परमाणु शक्ति से लैश सामरिक आत्मनिर्भर भी बनाता । यहाँ की औद्योगिक विरासत, रंकिनी मंदिर के आध्यात्मिक महत्व के साथ मिलकर लोगों को एक नई जीवनशैली प्रदान करती है| माता रंकिनी के बारे में कई तरह की लोक कथाएँ क्षेत्र में प्रचलित है, हालांकी इन कथा कहानियों का कोई पुख्ता और अभिलेखित प्रमाण नहीं है बावजूद लोगों के अटूट आस्था का केंद्र है यह रंकिनी मंदिर और यहाँ पूजे जाने वाली देवी माँ रंकिनी | एक किवदंती के अनुसार, वर्षों पहले आसपास के गाँव के कुछ लोगों ने एक आदिवासी लड़की को यहाँ पहुंचकर देवी का स्वरूप धारण करते हुए और एक राक्षस को मारते हुए देखा। इस कहानी के अनुसार उस समय उस आदिवासी व्यक्ति ने उस लड़की का पीछा करने की कोशिश की लेकिन लड़की घनघोर जंगल में अचानक गायब हो गई। और उसी रात में देवी ने उस आदिवासी व्यक्ति को सपने में दर्शन दिए, उस जगह पर माता रंकिनी ने उसे अपना मंदिर बनाने की सलाह दी। इस घटना के बाद आदिवासी समाज के लोगों में यह विश्वास हो गया की शक्ति स्वरूपा देवी रंकिनी ने खुद जंगल में अपने हाथों से उस राक्षस को मार दिया है जिसका भय लोगों को बना रहता था| इस सम्बन्ध में बँगला के प्रशिद्ध साहित्कार जिन्होंने घाटशिला और आसपास के इन क्षेत्रों में अपने जीवन के अंतिम दिन बिठाये और कई साहित्य लिखने वाले साहित्यकार बिभूति भूषण बंदोपाध्याय ने अपनी पुस्तक “रंकिनी देवीर खड़ग” में लिखा है कि-“कभी-कभी जब कुछ घटनाओं के पीछे कोई तर्कसंगत और पुख्ता व्याख्या नहीं होती, तो हम उन्हें अलौकिक कहते हैं। हो सकता है कि वास्तव में कुछ औचित्य हो, लेकिन वे हमारी तार्किक समझ से परे हैं।“:-( बिभूति भूषण बंदोपाध्याय रचित रंकिनी देवीर खड़ग)
बँगला साहित्य के अनगिनत विभूषणों में से एक बिभूति बाबू जिन्होंने अपने जीवन का अंतिम काल स्वर्णरेखा नदी के तट पर बसे घाटशिला में बिताये,जहां पवित्र स्वर्ण रेखा नदी के किनारे शिला पर बैठकर बिभूति बाबू ने “पाथेर पांचाली” नामक उपन्यास की रचना की जिसपर बँगला भाषा में प्रशिद्ध फिल्मकार सत्यजीत राय ने एक समाजी सरोकार की फिल्म पाथेर पांचाली बनाई जो आज भी लोगों के जुबां पर बस्ता है| बिभूति बाबू ने अपनी रचना रंकिनी देवीर खड़ग में मान रंकिनी से जूरी एक कहने को भी लिखा है जिसके अनुसार सालों पहले मानभूम में बर्बर लोगों का एक समूह रहता था। रंकिणी देवी उनकी देवी थीं। बाद में जब हिंदू आए, तो वे उनकी भी देवी बन गईं। लेकिन वे दूसरे हिंदू देवताओं की तरह नहीं हैं – वे वहां इंसानों की बलि देते थे, आप जानते हैं। साठ साल पहले भी ऐसी ही प्रथा थी। कुछ लोगों का मानना है कि अगर देवी रंकिणी नाराज हो जाती हैं, तो वे मौत और अकाल का कारण बनती हैं। एक कहावत है कि ऐसी किसी भी आपदा से पहले देवी का खून से सना हुआ चाकू मिल जाता है। मैंने ये सारी कहानियाँ लगभग चालीस साल पहले सुनी थीं, जब मैं पहली बार इस जगह आया था। चारों तरफ से पहाड़ी और जंगलों से घिरे इस जगह पर जहां पत्थर में विराजमान रंकिनी देवी की शिला रूपी आकृति की पूजा आज भी पूरे श्रद्धा-भाव और विशावस के साथ की जाती है| जहां इनकी पूजा परम्परा के अनुसार आज भी मूल रूप से स्थानीय जनजातियों द्वारा ही किया जाता है,यहाँ के पुजारी आदिवासी भूमिज समुदाय से आते हैं | भूमिज शब्द का शाब्दिक अर्थ है वह व्यक्ति जो मिट्टी से पैदा हुआ हो। जिनके बारे में माना जाता है कि वे आदिवासी समुदाय के मुंडा जनजाति की एक शाखा हैं। भूमिज अपने स्वायत्त जीववादी आदिवासी धर्म को मानते हैं जिसमें हिंदू धर्म के कुछ तत्व समाहित हैं। बताया आजाता है की देवी के इस मंदिर में अतीत में लगभग सन 1865 तक नरबली यानी की मनुष्यों की बलि भी देखी गई थी , जिसे अंततः ब्रिटिश हुकूमत ने रोक लगवा दी| इसके बारे में बताया जाता है की मूल रूप से स्थानीय जनजातियों द्वारा पूजित, यह जागृत देवी संभवतः तकालीन धालभूमगढ़ के राजाओं के शासनकाल के दौरान अंततः हिंदू देवी दुर्गा में परिवर्तित हो गई|
धालभूमगढ़ का इतिहास औपनिवेशिक अतीत से जुड़ा हुआ है, विशेष रूप से जब ब्रिटिश सेना ने मिदनापुर के राजा के साथ मिलकर सन-1765 में पहले असफल प्रयास के बाद 1767 में दुबारा इस क्षेत्र पर हमला किया था। और यह क्षेत्र अंग्रेजी हुकूमत के अधीन आ गया था | वर्तमान समय के मंदिर का स्वरुप लगभग 77 साल पुराना है, जिसे 1950 के आसपास बनाया गया था। मंदिर का प्रबंधन करने वाला ट्रस्ट का गठन में बनाया गया था। चूंकि यह काफी आधुनिक संरचना है, इसलिए इसमें कोई जटिल पत्थर की वक्रता या वास्तुकला या डिजाइन उत्कृष्टता का कोई अन्य कार्य नहीं पाया जा सकता है। यह एक काफी सरल संरचना है और | पिछले कई दशक से इस मंदिर के पुनरुत्थान में जितना कम शासन प्रशासन के द्वारा किया जाना चाहिए था वह नहीं हो पाया है| वर्तमान में क्षेत्र के विधायक संजीब सरदार ने इस मंदिर परिसर के शौन्दरिकरण,विकास और उत्थान के लिए कई प्रयास किए जा रहे हैं| विधायक संजीब सरदार ने मंदिर के दोनों तरफ प्रवेश द्वार पर आकर्षक और भव्य तोरण द्वार का निर्माण करवाया गया है जो माता के दरवार को मन्दिर पहुँचने से पहले ही इनकी भव्यता को दर्शाता है| और ह लोगों को बरबस ही अपनी और आकर्षित कर रहा है |
रंकिनी मंदिर में जाना सिर्फ़ आध्यात्मिक यात्रा ही नहीं है, बल्कि ऐतिहासिक खोज भी है। यह मंदिर स्थानीय लोगों की अटूट आस्था और दृष्टि का प्रमाण है, जो पीढ़ियों से यहाँ पूजा करते आ रहे हैं। शांत वातावरण और शांत वातावरण चिंतन और श्रद्धा के लिए एक आदर्श पृष्ठभूमि प्रदान करता है। झारखंड से होकर यात्रा करने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए, जादूगोड़ा में रंकिनी मंदिर की यात्रा अवश्य करनी चाहिए। चाहे आप आध्यात्मिक शांति, ऐतिहासिक अंतर्दृष्टि चाहते हों, या बस क्षेत्र की अनूठी सांस्कृतिक विरासत का अनुभव करना चाहते हों, रंकिनी मंदिर एक समृद्ध और अविस्मरणीय अनुभव का वादा करता है।
आप चाहे एक श्रद्धालु तीर्थयात्री हों या एक जिज्ञासु यात्री, रंकिनी मंदिर निस्संदेह आपकी आत्मा पर एक अमिट छाप छोड़ेगा। अंत में, जादूगोड़ा में रंकिनी मंदिर एक छिपा हुआ रत्न है जो झारखंड की समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक ताने-बाने को समेटे हुए है। इसका पवित्र वातावरण, क्षेत्र के दिलचस्प इतिहास के साथ मिलकर इसे देखने लायक जगह बनाता है।